Sunday, July 13, 2014

जिंदगी मुझसे खेलती है.... और मैं जिंदगी से।

जिंदगी मुझसे खेलती है 
और मैं जिंदगी से। ......................... 

कल यूँ  ही अकेले बैठा हुआ था 
की जिंदगी बिना आहट  किये 
मेरे बगल में आ के बैठ गयी 
और बोली 
तू किस बात पर इतना 
इतराता है 
बात -बात पर मुझको 
ठोकरे मारता है…

जरा देख उन लोगो को 
जो हर दिन दुहाई देते है 
की कुछ इनायात 
कर दू उन पर 
कुछ दिन तो और दे दूँ उनको। …।

और तू है की 
हर बात पर अपनी धौंस जमाता है 

तुझे मालूम नहीं की 
जो  मै तुझको ठोकर मारूंगी 
तो धूल में मिल जाएगा 
तेरा ये गरूर तेरी ये अकड़ 
सब यही रह जाएगा 

मैंने भी हँसते हुए कहा 
मार दे ना ठोकर 
किसने मना  किया 
मिला दे ना इस मिट्टी में 
जिससे आया था फिर उसमे मिल जाऊँगा 
मेरा क्या बिगड़ेगा। …। 
`तू क्यों डरती है 

मिला दे मुझको उसमे 
जिससे मई आया था 
की आखिर में तो जाना ही
 वही है मुझको 
मुझको न तू अपने छलावे दिखा 
मुझको न तू यूँ बहका 

डरा मत मुझे 
की मै  खत्म होता नहीं 
तेरे खत्म होने से 
यूँ ना सोच की तू है 
इसलिए मै हूँ

धोखा है ये तेरा 
की तुझसे मेरा वजूद है 
ऐ  जिंदगी जरा सुन 
तुझसे नहीं 
मुझसे है तेरा वजूद। … 

मैं वो हूँ जो 
कभी खत्म नहीं होता 
मैं  वो हूँ
 जो तेरी सीमाओं 
से परे हूँ 
मैं तेरे इन सुख दुःख 
पाप -पुण्य 
जन्म -मृत्यु  के 
बंधनो से मुक्त हूँ 

तू  मुझे क्या ठोकर मारती है 
तू मुझे क्या डराती है 

थोड़ा सी ठिठकी 
थोड़ी अनमनी अचंभित होके 

वो मुझसे बोली 
क्या चाहिए तुझको 
सारे संसार  का सुःख 
वैभव तेरा ही है 
सारी खुशिया 
सारे आंनद तेरे है 
तू क्यों बैरागी बना बैठा है 
बता तुझे क्या चाहिए 
वो सब मैं दूँगी 

मैंने भी हँसते हँसते कहा 
ज़माने की भी क्या रीत है 
जब चाहिए  था 
तो दो गज जमीन भी 
ना मिली है मेरे ख्वाबों को 
और जब कोई हसरत नहीं 
तो सारा आसमान है मेरा 

मैंने भी जिंदगी को हँसते हँसते 
कहा जा अब मुझे भी तेरी 
जरूरत नहीं 
तू कोई और ठिकाना ढूंढ ले 
तेरे चाहने वाले बहुत है 
इस जमाने में। .... 


































  











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